Monday, August 9, 2010

जीभें क्या-क्या करती हैं...

आदिवासियों-दबे कुचलों की आवाज़ बुलंद करने में जीवन भर तत्पर रहे अश्विनी जी ने हमें यह कविता भेजी है। मौका है विश्व आदिवासी दिवस का। उनका आह्वान है कि संघर्ष का संकल्प ही नयी दुनिया के सृजन का एकमात्र विकल्प है। उनकी ओर से आप सभी को हूल जोहार!!


कुछ जीभें लपलपाती हैं
कुछ जीभें लार टपकाती हैं

कुछ जीभें डंस लेती हैं

कुछ जीभें
जीभ काट लेती हैं
तो कुछ जीभें
समूचे वजूद को ही
चट कर जाती हैं
पर सबसे क्रूर
वो जीभें होती हैं
जो जिंदगी भर
किसी देह पर
आबादी के एक बड़े हिस्से की
मेधा और पहचान पर
विषैले सांप की तरह
रेंगती रहती है
और आपके वजूद को
अजगर का शिकार बनाये रखती है

6 comments:

समय चक्र said...

vaah bahut badhiya rachana. jeebh kya kya nahin karati hai.....

मोनिका गुप्ता said...

आंदोलित करने वाली रचना है। सचमुच आदिवासी समाज लगातार जिस उपेक्षा का सामना कर रहा है, उसे जानकर दुख होता है। आदिवासियों के हित में तो कई घोषणाएं होती है लेकिन काम कुछ नहीं होता। आदिवासी के नाम पर सब केवल जीभ चलाने का ही काम करते है जिसके कारण आवाज तो निकलती है लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकलता।

स्वप्न मञ्जूषा said...

johaar..
bahut hi acchi prastuti ...
monika ki baaton se sahmat hun...
aabhaar..

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

ashvini bhaayi....baat to itni gahari likh di hai aapne ki kuchh kahaa hi nahin jaa rahaa mujhse....main ise jazb karne men doob gayaa hoon....

Anonymous said...

सच्चे सही विचारणीय तथ्य

Anonymous said...

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