ज्यादातर लोग सिंगुर को टाटा-ममता विवाद के रूप में ही जानते हैं, लेकिन शेष भारत कम ही जानता है कि इसी सिंगुर के छोटे से गांव घनश्यामपुर में एक ऐसी प्रतिभा भी रहती है, जिसे खेल की दुनिया में स्प्रिंट क्वीन का खिताब मिला है। ये हैं आशा रॉय। गरीबी इतनी है कि परिवार सब्जी बेचता है, तो दो वक्त की रोटी का बमुश्किल इंतजाम हो पाता है। पिछले दिनों आशा से मिलने मैं उनके गांव पहुंच गया। 22 वर्षीय आशा से मिला और उनसे यह जानने की कोशिश की कि 11 सितंबर 2011 को नेशनल ओपन एथलीट के तहत साल्ट लेक स्टेडियम में मैंने जिस तेज-तर्रार धावक को महज 11.85 सेकेंड में सौ मीटर के लिए स्वर्ण हासिल करते देखा था, उसे ओलंपिक में जगह क्यों नहीं मिली? जवाब में आशा की आंखें डबडबा जाती हैं। कहती हैं, गरीब हूं लाइमलाइट में भी नहीं हूं, कौन पूछता है? बेंगलुरु में वर्कशॉप चल रहा था, एकाएक बंद कर दिया गया। न मेरे लिए राष्ट्रीय स्तर पर पैरवी का इंतजाम है और न ही मेरे पास इतना पैसा कि मैं दिल्ली जाकर अपने बारे में लोगों को बता सकूं। आशा की बातों में उनका दर्द छुपा है। अपने जीर्ण-शीर्ण खपडैल मकान में किसी तरह जिंदगी गुजार रही आशा को रेलवे में तीसरे दर्जे की नौकरी तो मिल गयी है, लेकिन अभी तक वेतन नहीं मिला है। आशा ने कई प्रतियोगिताओं में शानदार दौड़ लगाकर अव्वल स्थान प्राप्त किया है और उनके अंदर एक भावी पिल्लउल कंदी टेके परिंपल उषा (पीटी उषा) साफ झलकती है। उनके पिता बताते हैं कि बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना और अपने बड़े भाई के 11 बच्चों को पाला। भाई की मौत काफी पहले ही हो चुकी है। उनकी मां चाहती हैं कि एक दिन उनकी बेटी आशा पूरे भारत की बेटी कहलाने का गौरव हासिल करे। उन्हें इतना पता है कि उनकी बेटी ने तेज दौड़ कर पश्चिम बंगाल का नाम रोशन किया है, लेकिन जब उनसे ओलंपिक और दूसरी प्रतियोगिताओं की जानकारी के बारे में पूछा, तो उन्होंने शर्माते हुए सिर्फ इतना ही कहा, "बहुत बड़ी खेल।" सवाल यह है कि आखिर ऐसी प्रतिभाओं को कब तक कुंठित किया जाता रहेगा? क्यों नहीं खेल मंत्रालय इन प्रतिभाओं पर ध्यान देना चाहता है। अगर आज आशा को बेहतर प्रशिक्षण देकर ओलंपिक में भेजने का प्रयास किया गया होता, तो कम से कम उनसे उम्मीद तो पाली जा सकती थी। इन सब विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आशा रॉय ने हिम्मत नहीं हारी है। वे कहती हैं, एक दिन देश के लिए जरूर दौड़ूंगी। लेकिन, मूल सवाल यह है कि गरीबी की कोख में जन्मी इस प्रतिभा को पहचानेगा कौन? हम लोग तो वैसे भी क्रिकेटर को छोड़कर किसी माई के लाल को पहचानना तौहीन ही समझते हैं!!
Wednesday, August 1, 2012
ओलंपिक में आखिर क्यों नहीं ये स्प्रिंट क्वीन?
ज्यादातर लोग सिंगुर को टाटा-ममता विवाद के रूप में ही जानते हैं, लेकिन शेष भारत कम ही जानता है कि इसी सिंगुर के छोटे से गांव घनश्यामपुर में एक ऐसी प्रतिभा भी रहती है, जिसे खेल की दुनिया में स्प्रिंट क्वीन का खिताब मिला है। ये हैं आशा रॉय। गरीबी इतनी है कि परिवार सब्जी बेचता है, तो दो वक्त की रोटी का बमुश्किल इंतजाम हो पाता है। पिछले दिनों आशा से मिलने मैं उनके गांव पहुंच गया। 22 वर्षीय आशा से मिला और उनसे यह जानने की कोशिश की कि 11 सितंबर 2011 को नेशनल ओपन एथलीट के तहत साल्ट लेक स्टेडियम में मैंने जिस तेज-तर्रार धावक को महज 11.85 सेकेंड में सौ मीटर के लिए स्वर्ण हासिल करते देखा था, उसे ओलंपिक में जगह क्यों नहीं मिली? जवाब में आशा की आंखें डबडबा जाती हैं। कहती हैं, गरीब हूं लाइमलाइट में भी नहीं हूं, कौन पूछता है? बेंगलुरु में वर्कशॉप चल रहा था, एकाएक बंद कर दिया गया। न मेरे लिए राष्ट्रीय स्तर पर पैरवी का इंतजाम है और न ही मेरे पास इतना पैसा कि मैं दिल्ली जाकर अपने बारे में लोगों को बता सकूं। आशा की बातों में उनका दर्द छुपा है। अपने जीर्ण-शीर्ण खपडैल मकान में किसी तरह जिंदगी गुजार रही आशा को रेलवे में तीसरे दर्जे की नौकरी तो मिल गयी है, लेकिन अभी तक वेतन नहीं मिला है। आशा ने कई प्रतियोगिताओं में शानदार दौड़ लगाकर अव्वल स्थान प्राप्त किया है और उनके अंदर एक भावी पिल्लउल कंदी टेके परिंपल उषा (पीटी उषा) साफ झलकती है। उनके पिता बताते हैं कि बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना और अपने बड़े भाई के 11 बच्चों को पाला। भाई की मौत काफी पहले ही हो चुकी है। उनकी मां चाहती हैं कि एक दिन उनकी बेटी आशा पूरे भारत की बेटी कहलाने का गौरव हासिल करे। उन्हें इतना पता है कि उनकी बेटी ने तेज दौड़ कर पश्चिम बंगाल का नाम रोशन किया है, लेकिन जब उनसे ओलंपिक और दूसरी प्रतियोगिताओं की जानकारी के बारे में पूछा, तो उन्होंने शर्माते हुए सिर्फ इतना ही कहा, "बहुत बड़ी खेल।" सवाल यह है कि आखिर ऐसी प्रतिभाओं को कब तक कुंठित किया जाता रहेगा? क्यों नहीं खेल मंत्रालय इन प्रतिभाओं पर ध्यान देना चाहता है। अगर आज आशा को बेहतर प्रशिक्षण देकर ओलंपिक में भेजने का प्रयास किया गया होता, तो कम से कम उनसे उम्मीद तो पाली जा सकती थी। इन सब विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आशा रॉय ने हिम्मत नहीं हारी है। वे कहती हैं, एक दिन देश के लिए जरूर दौड़ूंगी। लेकिन, मूल सवाल यह है कि गरीबी की कोख में जन्मी इस प्रतिभा को पहचानेगा कौन? हम लोग तो वैसे भी क्रिकेटर को छोड़कर किसी माई के लाल को पहचानना तौहीन ही समझते हैं!!
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2 comments:
विडम्बना ही कहेंगे इसे|
ऐसी एक नहीं अनेक आशा रॉय है, जिनकी प्रतिभा बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कुंद पड़ती जा रही है। प्रत्येक राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी है कि इन प्रतिभाओं को निखारने संवारने में अपने कर्तव्य का पालन करें। इन्हें तैयार कर ओलिंपक में भेजें। तब आज की तरह देश विकल्पहीन नहीं होगा और किसी एक खिलाड़ी से ही सारी उम्मीदें नहीं पाल बैठेगा।
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